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संघ के 100 साल

“राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल : राष्ट्र की बुनियादी और सांस्कृतिक आवश्यकता”

1925 में विजयदशमी के दिन नागपुर से प्रारम्भ हुई राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा आज सौ वर्षों की ऐतिहासिक परिपक्वता के साथ हमारे सामने है। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जिन उद्देश्यों को लेकर यह संगठन खड़ा किया था, वे केवल एक राजनीतिक दल या सत्ता-आकांक्षा तक सीमित नहीं थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि भारत को उसकी अपनी सांस्कृतिक धुरी पर पुनर्स्थापित किया जाए, क्योंकि वे मानते थे कि विदेशी शासन, आक्रांताओं और औपनिवेशिक मानसिकता ने देश के आत्मबोध को क्षतिग्रस्त किया है। इस क्षति की भरपाई किसी तात्कालिक आंदोलन या राजनीतिक हल से नहीं बल्कि एक गहन सांस्कृतिक संगठन और सामाजिक अनुशासन से ही संभव है। इसीलिए संघ ने स्वयं को राजनीति से अलग बताते हुए अपनी शाखाओं और प्रशिक्षण पद्धति के माध्यम से भावी पीढ़ियों में अनुशासन, संगठन-शक्ति और सांस्कृतिक गौरव की चेतना जगाने का बीड़ा उठाया।

राष्ट्र की बुनियादी आवश्यकताओं की यदि हम सूची बनाएँ तो उसमें तीन बातें अनिवार्य हैं—सुरक्षा, शिक्षा और सांस्कृतिक आत्मबोध। सुरक्षा केवल सीमा की रक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि समाज में आंतरिक एकता और संकट के समय सामूहिक प्रतिक्रिया की क्षमता भी है। शिक्षा केवल डिग्री और रोजगार तक सीमित नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और नागरिक चेतना की आधारशिला है। सांस्कृतिक आत्मबोध केवल परंपराओं का संकलन नहीं, बल्कि वह जीवन-शक्ति है जो समाज को अपनी पहचान, अपनी जड़ों और अपने भविष्य से जोड़ती है। RSS ने इन तीनों आयामों पर ध्यान केंद्रित किया। इसकी शाखाएँ सामूहिक अनुशासन और सुरक्षा-संवेदनशीलता का प्रशिक्षण देती हैं। उसके विभिन्न सहयोगी संगठन शिक्षा और सेवा कार्यों के माध्यम से नए नागरिकों को तैयार करते हैं। और सबसे बढ़कर, यह संगठन भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं को आधुनिक संदर्भ में पुनर्परिभाषित करके एक आत्मविश्वासी राष्ट्र-बोध जगाता है।

Christophe Jaffrelot जैसे विद्वान मानते हैं कि संघ की असली शक्ति उसकी दीर्घकालीन सामाजिक इंजीनियरिंग में है। वह चुनावी राजनीति से परे जाकर एक ऐसी पीढ़ी तैयार करता है जो स्वयं को पहले “राष्ट्रसेवक” और बाद में किसी अन्य भूमिका में देखती है। इसी कारण से संघ के प्रभाव को केवल राजनीतिक दृष्टि से आंकना उचित नहीं होगा। उसकी शाखाओं से निकले लाखों स्वयंसेवक केवल राजनीतिक दलों में ही सक्रिय नहीं होते बल्कि शिक्षा, समाजसेवा, मीडिया और प्रशासन जैसे विविध क्षेत्रों में अपनी सांस्कृतिक चेतना के साथ योगदान देते हैं। यह योगदान ही वास्तव में संघ को राष्ट्र की बुनियादी आवश्यकता बनाता है क्योंकि वह राष्ट्र को केवल सत्ता-व्यवस्था के स्तर पर नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर मजबूत करता है।

Walter Andersen और Shridhar Damle ने अपने शोध The Brotherhood in Saffron में लिखा है कि RSS की शाखा प्रणाली भारतीय समाज में एक प्रकार की “सामाजिक प्रयोगशाला” है, जहाँ व्यक्ति न केवल शारीरिक अभ्यास करता है बल्कि सामूहिकता और अनुशासन के संस्कार भी प्राप्त करता है। यह अनुशासन आधुनिक भारत के लिए उतना ही आवश्यक है जितना औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति, क्योंकि यदि समाज में आत्मनियंत्रण और सामूहिक चेतना न हो तो विकास भी असंतुलित और विघटनकारी हो सकता है। संघ का यही अनुशासनात्मक दृष्टिकोण भारत की राजनीतिक संस्कृति को भी प्रभावित करता है और यही उसे एक बुनियादी आवश्यकता के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

संघ के आलोचक प्रायः यह आरोप लगाते हैं कि यह संगठन केवल बहुसंख्यक समाज की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि है और अल्पसंख्यक समुदायों की उपेक्षा करता है। किंतु संघ की दृष्टि स्वयंसेवकों के अनुसार कहीं अधिक व्यापक है। M.G. Chitkara जैसे लेखकों ने इंगित किया है कि संघ का मूल उद्देश्य “भारत माता को परम वैभव पर पहुँचाना” है, और इसके लिए वह हर उस नागरिक को साथ लेना चाहता है जो इस सांस्कृतिक राष्ट्र की एकता और गौरव में आस्था रखता है। यह सही है कि RSS ने अपना वैचारिक ढाँचा हिन्दू संस्कृति पर आधारित रखा है, पर इसे केवल धार्मिक संकीर्णता के रूप में देखना उसकी आत्मा को समझने में भूल होगी। यहाँ “हिन्दू” शब्द एक सांस्कृतिक परिभाषा है, जो जीवन-मूल्यों, सहिष्णुता, और समन्वय की उस परंपरा का द्योतक है जिसने भारत की ऐतिहासिक पहचान गढ़ी है।

आज जब वैश्वीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे समाज की बुनियाद को चुनौती दे रही है, तब यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि कोई संस्था हमारी मूल सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखे। संघ ने न केवल ऐसा किया है बल्कि सेवा कार्यों और शिक्षा संस्थानों के माध्यम से इसे व्यवहारिक धरातल पर भी उतारा है। गुजरात के भूकंप से लेकर केरल की बाढ़ और कोविड-19 महामारी तक, स्वयंसेवकों ने राहत और सेवा कार्यों में जो योगदान दिया, उसने यह सिद्ध कर दिया कि RSS केवल विचारधारा का संगठन नहीं बल्कि राष्ट्र की आपातकालीन आवश्यकता के समय काम आने वाली जीवंत शक्ति है। यही कारण है कि Andersen और Damle लिखते हैं कि “RSS is not just an organization, it is an ecosystem of nationalism and service.”

संघ ने भारतीय राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डाला है। भाजपा के रूप में उसका राजनीतिक अंग सामने आया, किंतु यह भूलना नहीं चाहिए कि भाजपा से कहीं अधिक व्यापक है वह सांस्कृतिक धारा जो संघ ने पिछले सौ वर्षों में बहाई है। यह धारा भारतीय राजनीति को अनुशासन, राष्ट्र-निष्ठा और सांस्कृतिक गौरव का पाठ पढ़ाती रही है। यह कहना गलत न होगा कि आज भारतीय लोकतंत्र में जो वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति खड़ी हुई है, उसकी जड़ें संघ की शाखाओं और प्रशिक्षण प्रणाली में ही हैं।

फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी बड़े संगठन की तरह संघ के सामने भी चुनौतियाँ हैं। एक ओर उसे अपनी सांस्कृतिक दृष्टि को और अधिक समावेशी तथा संवादपरक बनाना होगा ताकि भारत की विविधता उसकी शक्ति बने। दूसरी ओर उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसका प्रभाव लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप रहे और नागरिक स्वतंत्रता पर कोई आंच न आए। यदि संघ इन चुनौतियों को संतुलित ढंग से सुलझाता है तो निस्संदेह वह आने वाले शताब्दी में भी राष्ट्र की बुनियादी और सांस्कृतिक आवश्यकता बना रहेगा।

RSS का शताब्दी वर्ष केवल एक संगठन का उत्सव नहीं है, यह भारत की आत्मा और भविष्य का भी उत्सव है। डॉ. हेडगेवार से लेकर आज तक इस संगठन ने यह सिद्ध किया है कि राष्ट्र की सबसे बड़ी आवश्यकता किसी सत्ता-व्यवस्था से नहीं बल्कि उस सांस्कृतिक चेतना से पूरी होती है जो नागरिकों को एक सूत्र में बाँध सके। यही चेतना संघ ने जगाई है, यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है और यही कारण है कि आज यह संगठन केवल अतीत की स्मृति नहीं बल्कि भविष्य की अनिवार्यता भी है।

— डॉ. अविनीश प्रकाश सिंह

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