हिन्दुस्तान मिरर न्यूज़ ✑15 मई : 2025
नई दिल्ली | 15 मई 2025
पिछले कुछ हफ्तों से देश की संवैधानिक व्यवस्था के दो स्तंभ—राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट—एक विशेष निर्णय को लेकर आमने-सामने हैं। मामला है राज्य विधानसभा से पास बिलों पर निर्णय लेने में देरी को लेकर। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर तय समयसीमा में निर्णय लेना होगा। लेकिन अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस फैसले पर गंभीर आपत्ति जताते हुए कोर्ट से Article 143(1) के तहत राय मांगी है।
क्या है मामला?
तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच बिलों की स्वीकृति में हो रही देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा था। कोर्ट ने फैसले में साफ कहा कि राज्यपाल/राष्ट्रपति को विधेयकों पर लंबे समय तक निर्णय टालने का अधिकार नहीं है और उन्हें एक निश्चित समयसीमा में फैसला देना चाहिए। कोर्ट ने ‘डीन्ड असेंट’ (मान लिया गया अनुमोदन) की अवधारणा भी पेश की, जिसका अर्थ है—यदि तय समय में मंजूरी नहीं दी गई, तो बिल को स्वीकृत माना जाएगा।
राष्ट्रपति मुर्मू ने कोर्ट के इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में न तो कोई समयसीमा तय की गई है और न ही कोई प्रक्रिया। राष्ट्रपति ने सवाल किया कि जब संविधान ही मौन है, तो सुप्रीम कोर्ट ऐसा आदेश कैसे दे सकता है? उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे निर्णय संघीय ढांचे, राष्ट्रीय सुरक्षा और शक्तियों के पृथक्करण जैसे गंभीर मसलों से जुड़े होते हैं, इसलिए न्यायपालिका को अपनी सीमा का ध्यान रखना चाहिए।
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे 14 बड़े सवाल
राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार की सलाह पर सुप्रीम कोर्ट से संविधान की व्याख्या के लिए 14 अहम सवाल Article 143(1) के तहत रखे हैं:
- अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विकल्प – क्या उनके पास बिल को मंजूरी, अस्वीकृति या आरक्षण के अलावा और कोई विकल्प है?
- मंत्रिपरिषद की सलाह – क्या राज्यपाल को बिल पर निर्णय लेते वक्त मंत्रिपरिषद की सलाह मानना अनिवार्य है?
- राज्यपाल का विवेकाधिकार – क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विवेकाधिकार पर न्यायिक समीक्षा संभव है?
- अनुच्छेद 361 की सुरक्षा – क्या राज्यपाल के फैसले न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह मुक्त हैं?
- समयसीमा तय करने का अधिकार – क्या कोर्ट तब भी समयसीमा तय कर सकता है जब संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है?
- राष्ट्रपति का विवेकाधिकार और न्यायिक समीक्षा – क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के निर्णय भी समीक्षा योग्य हैं?
- राष्ट्रपति पर समयसीमा लागू हो सकती है? – जब संविधान कोई समयसीमा नहीं बताता तो क्या कोर्ट ऐसा कर सकता है?
- बिल पर फैसला लेने से पहले सुप्रीम कोर्ट की राय लेना जरूरी? – क्या राष्ट्रपति को किसी निर्णय से पहले कोर्ट से सलाह लेनी होगी?
- बिल कानून बनने से पहले ही चुनौती के योग्य? – क्या विधानसभा से पारित लेकिन राष्ट्रपति की मंजूरी का इंतजार कर रहे बिल को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
- अनुच्छेद 142 के तहत न्यायपालिका का अधिकार क्षेत्र – क्या कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल की जगह खुद निर्णय ले सकता है?
- राज्यपाल की मंजूरी के बिना कानून प्रभावी हो सकता है? – क्या विधानसभा से पारित बिल बिना राज्यपाल की सहमति के प्रभावी हो सकता है?
- संविधान की व्याख्या पर बड़ी पीठ की अनिवार्यता – क्या अनुच्छेद 145(3) के तहत ऐसे मामलों में कम से कम पांच जजों की पीठ जरूरी नहीं थी?
- अनुच्छेद 142 की सीमा – क्या कोर्ट संविधान या मौजूदा कानूनों के विरुद्ध आदेश दे सकता है?
- अनुच्छेद 131 के अलावा केंद्र-राज्य विवादों का निपटारा – क्या कोर्ट अन्य आधारों पर भी संघीय विवाद सुलझा सकता है?
संवैधानिक टकराव की नई बुनियाद?
यह पहला मौका है जब किसी राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इस तरह औपचारिक आपत्ति दर्ज कर, संविधान की व्याख्या की मांग की हो। यह मुद्दा न सिर्फ राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच की संवैधानिक सीमाओं को स्पष्ट करेगा, बल्कि भविष्य में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी प्रक्रिया की व्याख्या को भी नया स्वरूप देगा।
आगे क्या?
अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि वह Article 143(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए इन सवालों का जवाब कैसे देगा। संभव है कि इस पर एक संवैधानिक बेंच का गठन हो। इस संवैधानिक बहस का असर न सिर्फ मौजूदा फैसले, बल्कि देश के संघीय ढांचे और विधायी प्रक्रियाओं पर भी गहरा पड़ सकता है।