हिन्दुस्तान मिरर न्यूज:
अलीगढ़ की सरज़मीं आज भी 1857 की पहली आज़ादी की जंग की गूंजों को संजोए हुए है। इसी धरती पर शाही जामा मस्जिद के पेश इमाम मौलाना अब्दुल जलील ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंका था। 20 जून 1857 को जामा मस्जिद से जारी उनके फतवे ने पूरे शहर में आज़ादी का जज़्बा भर दिया। उनकी पुकार पर हजारों मुजाहिदीन हथियार लेकर मैदान-ए-जंग में कूद पड़े।
24 अगस्त 1857 को हाथरस की ओर से आए अंग्रेजी हमले के दौरान मौलाना अब्दुल जलील अपने 72 बहादुर साथियों के साथ तोपों पर काबिज हो गए। जंग इतनी भीषण थी कि अंग्रेजी फौज हिल उठी, लेकिन आखिरकार मौलाना अब्दुल जलील और उनके साथी शहीद हो गए। उनकी यह कुर्बानी हिंदुस्तान की आज़ादी की बुनियाद में खून का ऐसा रंग घोल गई, जिसने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा दी।
उनकी पुण्यतिथि पर रविवार को शाही जामा मस्जिद अलीगढ़ में श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। इस मौके पर बड़ी संख्या में शहरवासी उपस्थित रहे। पूर्व मेयर मोहम्मद फुरकान, जामा मस्जिद के इमाम मौलाना महमूदुल हसन कासमी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शिक्षक डॉ. रेहान अख्तर कासमी ने शहीदों को नमन किया। वक्ताओं ने कहा कि मौलाना अब्दुल जलील और उनके साथियों की शहादत इस बात की गवाही देती है कि हिंदुस्तान की आज़ादी अनगिनत कुर्बानियों के बाद मिली है।
जामा मस्जिद परिसर में मौजूद उनकी कब्रें आज भी इतिहास की उस बहादुरी और बलिदान को याद दिलाती हैं, जब मुल्क की खातिर अपनी जान न्यौछावर करना ईमान और फर्ज़ माना गया था।