देश में तेजी से सौर ऊर्जा का विस्तार हो रहा है। गांव से लेकर शहरों तक लोग सौर ऊर्जा की ओर रुख कर रहे हैं, जिससे बिजली की उपलब्धता आसान हुई है। लेकिन एक नई रिसर्च ने इसके कचरे को लेकर चेतावनी दी है। थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2047 तक भारत में लगभग 1.1 करोड़ टन सौर अपशिष्ट (Solar Waste) उत्पन्न होगा। इसमें ज्यादातर हिस्सा क्रिस्टलाइन-सिलिकॉन मॉड्यूल्स से आएगा।
रिपोर्ट के मुताबिक, इस कचरे के प्रबंधन के लिए देशभर में करीब 300 रीसाइक्लिंग प्लांट्स और ₹4,200 करोड़ के निवेश की आवश्यकता होगी। यह न केवल एक नया ₹3,700 करोड़ का बाजार तैयार करेगा, बल्कि सिलिकॉन, तांबा, एल्यूमीनियम और चांदी जैसे कीमती खनिजों को दोबारा प्राप्त करने में मदद करेगा। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस क्षमता का पूरा लाभ उठाया गया, तो भारत अपने सौर विनिर्माण की 38% मांग पुनर्चक्रित संसाधनों से पूरी कर सकेगा और 3.7 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन को रोका जा सकेगा।
रिपोर्ट में बताया गया है कि फिलहाल भारत में सौर मॉड्यूल रीसाइक्लिंग शुरुआती अवस्था में है और कुछ ही औद्योगिक इकाइयाँ इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। सीईईडब्ल्यू के शोधकर्ता ऋषभ जैन ने कहा कि भारत की सौर क्रांति एक “हरित औद्योगिक अवसर” बन सकती है। यदि देश अपनी स्वच्छ ऊर्जा प्रणाली में “चक्रीय अर्थव्यवस्था” (Circular Economy) को अपनाए, तो यह न केवल कचरे को मूल्यवान संसाधनों में बदल सकता है बल्कि ग्रीन जॉब्स भी पैदा करेगा और आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत बनाएगा।
हालांकि अध्ययन में यह भी स्वीकार किया गया है कि फिलहाल पुनर्चक्रण की प्रक्रिया आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है। रीसाइक्लर्स को प्रति टन ₹10,000 से ₹12,000 का नुकसान हो रहा है। सबसे बड़ा खर्च पुराने पैनलों को वापस खरीदने में आता है, जिसकी लागत लगभग ₹600 प्रति पैनल है। इसके बाद प्रसंस्करण, संग्रहण और निपटान की लागत भी जुड़ जाती है।
फिर भी, विशेषज्ञों का कहना है कि उचित नीति समर्थन और EPR (Extended Producer Responsibility) लक्ष्य तय करके भारत इस संभावित संकट को सतत विकास के अवसर में बदल सकता है।













