हिन्दुस्तान मिरर न्यूज़: 1 मई : 2025,
देश की राजनीति में एक बड़ा मोड़ आया है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अगली जनगणना के साथ-साथ जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया है। यह कदम न केवल सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास माना जा रहा है, बल्कि इससे देश की राजनीति में भी गहरी हलचल मच गई है। खासकर विपक्षी INDIA गठबंधन, जो लंबे समय से जाति जनगणना की मांग करता रहा है, अब खुद को असहज स्थिति में पा रहा है।
जाति जनगणना की मांग और राजनीति
विपक्ष के बड़े नेता, खासकर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी, ने ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के नारे को आगे बढ़ाया है। वह कई बार अपने भाषणों में यह कह चुके हैं कि जाति जनगणना से ही सामाजिक न्याय की सही तस्वीर सामने आ सकती है। राहुल गांधी ने कांग्रेस शासित राज्यों में जातीय सर्वेक्षण का निर्देश भी दिया था। बिहार, कर्नाटक जैसे राज्यों में इस पर काम शुरू भी हुआ, लेकिन राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना को लेकर अब तक केंद्र सरकार चुप्पी साधे थी।
लेकिन अब, जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसपर मुहर लगा दी है, तो विपक्ष के लिए यह मुद्दा हाथ से निकलता नजर आ रहा है। यह कदम विपक्षी नेताओं के उस नैरेटिव पर भी सवाल खड़े करता है, जिसमें वे भाजपा को जाति जनगणना का विरोधी बताते रहे हैं।
बिहार मॉडल और जातीय आंकड़े
बिहार पहला ऐसा राज्य बना जिसने व्यापक स्तर पर जातीय गणना कराई और उसकी रिपोर्ट विधानसभा में पेश की। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों की कुल आबादी 63.14% है। इसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग करीब 4.7 करोड़ और पिछड़ा वर्ग लगभग 3.5 करोड़ है। इसके अलावा अनुसूचित जाति की जनसंख्या लगभग 2.56 करोड़, अनुसूचित जनजाति की 22 लाख, और अनारक्षित वर्ग की आबादी करीब 2 करोड़ बताई गई थी।
इन आंकड़ों ने सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह बदल दिया था। आरक्षण की नई माँगें उठीं, नीतियों में फेरबदल की बातें शुरू हुईं और जातीय हिस्सेदारी को लेकर बहस तेज हो गई। यही वजह है कि केंद्र सरकार का यह फैसला अब और भी अधिक राजनीतिक महत्व रखता है।
भाजपा की रणनीति: विपक्ष के दांव पर वार
मोदी सरकार का यह फैसला केवल एक सामाजिक उपाय नहीं, बल्कि एक रणनीतिक राजनीतिक दांव भी है। INDIA गठबंधन, खासकर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद और डीएमके जैसी पार्टियां लगातार भाजपा पर जाति आधारित सर्वेक्षण के विरोध का आरोप लगाती रही हैं। लेकिन अब जब खुद मोदी सरकार ने इसकी घोषणा कर दी है, तो विपक्ष का मुख्य नैरेटिव कमजोर होता दिख रहा है।
यह फैसला इसलिए भी खास माना जा रहा है क्योंकि इसके तुरंत सियासी लाभ मिलने की संभावना है—खासतौर पर बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में। भाजपा और उसके सहयोगी दल अब इस मुद्दे को लेकर जनता के सामने यह संदेश दे सकते हैं कि उन्होंने सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दी है।
विपक्ष की प्रतिक्रिया और भ्रम की स्थिति
कांग्रेस ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे अपनी जीत बताया है। कांग्रेस प्रवक्ताओं का कहना है कि यह फैसला दरअसल उनकी लगातार मांग और जन दबाव का नतीजा है। लेकिन पार्टी के भीतर इस बात को लेकर चिंतन जरूर है कि जिस मुद्दे को वह अपनी सबसे बड़ी रणनीतिक पूंजी मान रही थी, वह अब भाजपा के हाथों में चला गया है।
समाजवादी पार्टी और राजद जैसे दलों को भी इस फैसले से झटका लग सकता है, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहां जाति आधारित राजनीति की जड़ें गहरी हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल के महीनों में PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की अवधारणा को बढ़ावा दिया है। लेकिन अगर जाति जनगणना राष्ट्रीय स्तर पर हो जाती है, तो भाजपा इस नैरेटिव को खुद के पक्ष में मोड़ सकती है।
आंबेडकर और संविधान नैरेटिव पर प्रभाव
विपक्षी पार्टियां अक्सर भाजपा पर डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों की उपेक्षा का आरोप लगाती रही हैं। लेकिन जाति जनगणना के समर्थन और उसे लागू करने की दिशा में यह फैसला भाजपा को संविधान समर्थक और सामाजिक न्याय के पैरोकार के रूप में पेश करने का अवसर दे सकता है। इससे विपक्ष का आंबेडकर और संविधान पर आधारित नैरेटिव कमजोर पड़ सकता है।
आने वाले चुनावों में असर
जाति जनगणना का सियासी फायदा न केवल बिहार तक सीमित रहेगा। 2026 में बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और 2027 में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में। भाजपा इन सभी राज्यों में जाति जनगणना को एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकती है। वह यह दावा कर सकती है कि उसने समाज के वंचित वर्गों को पहचानने और उन्हें हक देने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं।
क्या भाजपा बदलेगी आरक्षण नीति?
जाति जनगणना के बाद एक बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार आरक्षण व्यवस्था में कोई बदलाव करेगी? क्या जातीय आंकड़ों के आधार पर केंद्र स्तर पर भी नई आरक्षण नीति लाई जा सकती है? हालांकि सरकार की ओर से इस पर अब तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जातीय डेटा के बाद मांगें बढ़ सकती हैं।
इस स्थिति में भाजपा को एक संतुलन साधना होगा। एक ओर उसे पिछड़े और वंचित तबकों को संतुष्ट करना होगा, वहीं सवर्ण समुदायों की नाराज़गी को भी संभालना होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इस सामाजिक संतुलन को किस तरह साधती है।
कर्नाटक की स्थिति और केंद्र की राह
कर्नाटक सरकार ने भी जातीय सर्वेक्षण की कोशिश की थी, लेकिन उसे विधानसभा में पेश नहीं किया जा सका और मामला विवादों में घिर गया। इससे यह स्पष्ट है कि जाति जनगणना एक जटिल और संवेदनशील विषय है। अब जब केंद्र सरकार ने यह जिम्मेदारी उठाई है, तो उसे इस प्रक्रिया को निष्पक्ष, पारदर्शी और समावेशी बनाना होगा।
सामाजिक न्याय या सियासी गणित?
मोदी सरकार का जाति जनगणना कराने का फैसला एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह कदम सामाजिक न्याय को नई दिशा दे सकता है, लेकिन इसके साथ ही यह देश की राजनीति को भी गहराई से प्रभावित करेगा। विपक्ष को जहां एक ओर यह अपनी उपलब्धि लग सकती है, वहीं भाजपा ने इसे एक रणनीतिक अवसर में तब्दील कर दिया है।
आने वाले महीनों में यह साफ हो जाएगा कि यह फैसला किसके लिए लाभकारी सिद्ध होगा—वंचित तबकों के लिए सामाजिक अधिकारों की ओर एक बड़ा कदम, या फिर भाजपा के लिए एक चुनावी मास्टरस्ट्रोक?