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भारत में सहकारिता: समृद्धि की सामूहिक राह

हिन्दुस्तान मिरर न्यूज:5 जुलाई 2025

बुटा सिंह,
सहायक आचार्य,
ग्रामीण विकास विभाग,
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली

भारत में सहकारिता एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक आंदोलन है, जिसकी जड़ें देश के ग्रामीण और कृषि प्रधान समाज में गहरी हैं। यह “सब एक के लिए और एक सबके लिए” के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका उद्देश्य सदस्यों की सामूहिक भलाई और आर्थिक उत्थान सुनिश्चित करना है।

सहकारिता का इतिहास और विकास

भारत में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में हुई।

  • प्रारंभिक चरण (1904-1947):
  • 1904 का सहकारी ऋण समिति अधिनियम: यह अधिनियम मुख्य रूप से किसानों को साहूकारों के शोषण से बचाने और उन्हें सस्ते दरों पर ऋण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से लाया गया था। यह जर्मनी के ‘रायफाइज़न मॉडल’ से प्रेरित था।
  • 1912 का सहकारी समिति अधिनियम: इस अधिनियम ने गैर-ऋण सहकारी समितियों, जैसे विपणन और उपभोक्ता सहकारी समितियों को भी बढ़ावा दिया।
  • मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919): सहकारिता को एक प्रांतीय विषय बना दिया गया, जिससे राज्यों को अपने स्वयं के सहकारी अधिनियम बनाने का अधिकार मिला।
  • बॉम्बे सहकारी अधिनियम (1925): इसने “एक सदस्य, एक वोट” के सिद्धांत को लागू किया, जो सहकारी समितियों के लोकतांत्रिक स्वरूप के लिए महत्वपूर्ण था।
  • रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) की स्थापना (1934) और मेहता समिति (1937): इन्होंने बहुउद्देशीय समितियों की सिफारिश की, जिससे सहकारिता का दायरा बढ़ा।
  • स्वतंत्रता के बाद का चरण:
  • पंचवर्षीय योजनाएँ: द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में सहकारिता को नियोजित विकास के एक केंद्रीय लक्ष्य के रूप में देखा गया।
  • राष्ट्रीय नीतियाँ: 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) ने सहकारी समितियों के प्रशिक्षण और विपणन समितियों की स्थापना के लिए राष्ट्रीय नीति की सिफारिश की। 2002 में भारत सरकार ने सहकारिता पर एक राष्ट्रीय नीति की घोषणा की।
  • 97वां संविधान संशोधन (2011/2012): इस संशोधन ने सहकारिता को संवैधानिक दर्जा दिया।
    • संविधान में एक नया भाग IX-B “सहकारी समितियां” (अनुच्छेद 243-ZH से 243-ZT) जोड़ा गया।
    • सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया।
    • अनुच्छेद 43B को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया, जो सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देने से संबंधित है।
  • सहकारिता मंत्रालय का गठन (2021): भारत सरकार ने देश में सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने और इसे एक नई दिशा देने के लिए एक अलग सहकारिता मंत्रालय का गठन किया।
  • बहु-राज्यीय सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम, 2023: यह अधिनियम बहु-राज्यीय सहकारी समितियों में शासन को मजबूत करने, पारदर्शिता बढ़ाने, जवाबदेही सुनिश्चित करने और चुनावी प्रक्रिया में सुधार करने पर केंद्रित है। भारत में सहकारी समितियों के प्रकार और कार्य

भारत में विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियाँ कार्यरत हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं:

  • कृषि ऋण समितियाँ (Agricultural Credit Societies):
  • प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS): ये सबसे निचले स्तर पर काम करती हैं और सीधे किसानों को अल्पकालिक और मध्यकालिक ऋण प्रदान करती हैं।
  • जिला केंद्रीय सहकारी बैंक (DCCB): ये जिला स्तर पर काम करते हैं और PACS को वित्त प्रदान करते हैं।
  • राज्य सहकारी बैंक (SCB): ये राज्य स्तर पर शीर्ष संस्थाएँ हैं, जो DCCB को नियंत्रित और वित्तपोषित करती हैं।
  • कार्य: किसानों को बीज, उर्वरक, उपकरण खरीदने और अन्य कृषि आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना।
  • विपणन सहकारी समितियाँ (Marketing Cooperative Societies):
  • कार्य: किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य दिलाने में मदद करना, बिचौलियों को खत्म करना, कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण, भंडारण और विपणन करना। NAFED (राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड) विपणन सहकारी संस्थाओं की शीर्ष संस्था है।
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ (Producer Cooperative Societies):
  • डेयरी सहकारी समितियाँ: जैसे अमूल (AMUL), जो किसानों से दूध इकट्ठा करती हैं, उसे संसाधित करती हैं और डेयरी उत्पाद बेचती हैं। इन्होंने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बनाया है (श्वेत क्रांति)।
  • चीनी मिल सहकारी समितियाँ: गन्ना उत्पादक किसान मिलकर चीनी मिलें चलाते हैं।
  • हथकरघा / हस्तशिल्प सहकारी समितियाँ: कारीगरों को एक मंच प्रदान करती हैं ताकि वे अपने उत्पादों का बेहतर विपणन कर सकें।
  • कार्य: छोटे उत्पादकों को बड़े पैमाने पर उत्पादन करने, बेहतर तकनीक अपनाने और अपनी उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद करना।
  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ (Consumer Cooperative Societies):
  • कार्य: सदस्यों को उचित मूल्य पर गुणवत्तापूर्ण उपभोक्ता वस्तुएँ उपलब्ध कराना, बिचौलियों के मुनाफे को कम करना।
  • आवास सहकारी समितियाँ (Housing Cooperative Societies):
  • कार्य: सदस्यों को किफायती दरों पर घर या ज़मीन उपलब्ध कराने में मदद करना।
  • अन्य प्रकार:
  • मत्स्य पालन सहकारी समितियाँ: मछुआरों को सहायता प्रदान करना।
  • श्रम ठेका सहकारी समितियाँ: श्रमिकों को संगठित करना और उन्हें रोजगार के अवसर दिलाना।
  • बहु-राज्यीय सहकारी समितियाँ (Multi-State Cooperative Societies): वे समितियाँ जिनका कार्यक्षेत्र एक से अधिक राज्यों में फैला होता है। भारतीय सहकारिता के समक्ष चुनौतियाँ

भारत में सहकारिता आंदोलन ने महत्वपूर्ण प्रगति की है, लेकिन यह कई चुनौतियों का भी सामना करता है:

  • प्रबंधन संबंधी मुद्दे:
  • सीमित व्यावसायिकता: कई सहकारी समितियों में पेशेवर प्रबंधन कौशल और संरचनाओं की कमी होती है, जिससे अकुशल संचालन होता है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: सहकारी समितियों के कामकाज में अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप होता है, जिससे उनकी स्वायत्तता और लोकतांत्रिक चरित्र कमजोर होता है।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी: कुछ सहकारी समितियों में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी होती है, जिससे भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की संभावना बढ़ जाती है।
  • सदस्यों की निष्क्रियता: कई समितियों में सदस्यों की भागीदारी कम होती है, जिससे नेतृत्व कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रह जाता है।
  • वित्तीय चुनौतियाँ:
  • अपर्याप्त वित्तपोषण: विशेषकर छोटी सहकारी समितियों के लिए पर्याप्त पूंजी जुटाना मुश्किल होता है।
  • उच्च बकाया: ऋण वसूली में समस्या और गैर-निष्पादित आस्तियां (NPAs) सहकारी ऋण संस्थानों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
  • बुनियादी ढांचा और प्रौद्योगिकी की कमी:
  • आधुनिक भंडारण, प्रसंस्करण और विपणन सुविधाओं की कमी।
  • प्रौद्योगिकी के उपयोग में पिछड़ापन, जिससे दक्षता प्रभावित होती है।
  • जागरूकता और शिक्षा का अभाव:
  • सहकारी सिद्धांतों और लाभों के बारे में सदस्यों और आम जनता के बीच जागरूकता की कमी।
  • प्रतिस्पर्धा:
  • निजी क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। समाधान और भविष्य की राह

इन चुनौतियों का सामना करने और सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं:

  • शासन में सुधार:
  • सहकारी समितियों में व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देना।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करने के लिए मजबूत विधायी और नियामक ढांचा तैयार करना।
  • पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को मजबूत करना।
  • सहकारिता मंत्रालय की भूमिका महत्वपूर्ण है, जो इन सुधारों को गति दे सकता है।
  • क्षमता निर्माण:
  • सहकारी समितियों के सदस्यों और प्रबंधन के लिए नियमित प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रम आयोजित करना।
  • युवाओं को सहकारिता आंदोलन से जोड़ने के लिए शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रम।
  • वित्तीय सुदृढ़ीकरण:
  • सहकारी बैंकों और ऋण समितियों की वित्तीय स्थिति में सुधार करना।
  • पुनर्वित्त सुविधाएँ बढ़ाना और ऋण वसूली तंत्र को मजबूत करना।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग:
  • सहकारी समितियों के संचालन में आधुनिक सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) का उपयोग करना।
  • GeM पोर्टल (सरकारी ई-मार्केटप्लेस) पर सहकारी समितियों को ‘खरीदार’ के रूप में शामिल करना, जिससे उन्हें सरकारी खरीद में भागीदारी करने का अवसर मिले।
  • डिजिटल भुगतान और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देना।
  • विधिकरण और नवाचार:
  • सहकारी समितियों को नए क्षेत्रों, जैसे जैविक खेती (राष्ट्रीय सहकारी जैविक लिमिटेड – NCOL), नवीकरणीय ऊर्जा और पर्यटन में विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित करना।
  • नए उत्पादों और सेवाओं को विकसित करना।
  • जन जागरूकता और शिक्षा:
  • सहकारिता के सिद्धांतों और लाभों के बारे में व्यापक जन जागरूकता अभियान चलाना।
  • शैक्षणिक संस्थानों में सहकारिता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना।

भारत में सहकारिता केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन भी है। यह विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन, वित्तीय समावेशन, महिला सशक्तिकरण और समावेशी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। “सहकार से समृद्धि” के लक्ष्य के साथ, एक मजबूत और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में सहकारिता एक महत्वपूर्ण स्तंभ बनी रहेगी।

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