कलकत्ता हाईकोर्ट: मृत्युदंड की जगह सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक
कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड के तहत फांसी दी जाती है या किसी भी तरह से उसकी जान ली जाती है, तो उस नुकसान की भरपाई संभव नहीं है। इसलिए सजा के बजाय सुधारात्मक दृष्टिकोण पर जोर दिया जाना चाहिए और न्यायाधीशों को रक्तपिपासु नहीं होना चाहिए।
यह टिप्पणी जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य ने उस समय की जब उन्होंने अपने मामा की हत्या के दोषी आफताब आलम की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। फैसले में कहा गया कि दंड के तीन प्रमुख स्तंभ — दंड, निवारण और सुधार — में आधुनिक समाज सुधार की ओर अग्रसर है। निवारण अभी भी आवश्यक है, लेकिन अब आपराधिक न्यायशास्त्र में सजा का सुधारात्मक पहलू अधिक महत्व पा रहा है।
मामले के अनुसार, जलपाईगुड़ी सत्र न्यायालय ने आफताब आलम को 28 जुलाई 2023 को धूपगुड़ी में अपने मामा की हत्या के लिए दोषी ठहराया था और मृत्युदंड सुनाया था। हाईकोर्ट ने इसे आजीवन कारावास में बदल दिया, जिसमें 20 वर्ष तक समयपूर्व रिहाई का कोई विकल्प नहीं होगा, जब तक कि अदालत संतुष्ट न हो।
जस्टिस भट्टाचार्य ने कहा कि हाल के वर्षों में जेलों को सुधार गृह में बदलने का उद्देश्य समाज की प्रतिशोध की प्रवृत्ति से हटकर अभियुक्तों को सुधारने की सभ्य नीति अपनाना है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हमें “अपराध से घृणा करनी चाहिए, अपराधी से नहीं”।
यह फैसला भारत में सजा की नीति में मानवीय और सुधारात्मक दृष्टिकोण की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है।